1.2.161

चौपाई
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।

दोहा/सोरठा
हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।

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