1.2.167

चौपाई
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।

दोहा/सोरठा
जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर।।167।।

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