1.2.183

चौपाई
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।

दोहा/सोरठा
जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।

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