1.2.197

चौपाई
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।

दोहा/सोरठा
एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।

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