1.2.238

चौपाई
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी।।
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।

दोहा/सोरठा
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।238।।

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