1.2.264

चौपाई
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।

दोहा/सोरठा
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।

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