1.2.286

चौपाई
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।

दोहा/सोरठा
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि।।286।।

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