चौपाई
मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।।
गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।।
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।
जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई।।
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।।
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा।।
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।
इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।।
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई।।
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती।।
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी।।
दोहा/सोरठा
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ।।34(क)।।
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।।
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग।।34(ख)।।