1.6.116

चौपाई
करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए।।
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी।।
सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो।।
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती।।
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे।।
देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा।।
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ।।
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला।।

दोहा/सोरठा
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात।।116(क)।।
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि।।116(ख)।।
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर।।116(ग)।।
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं।।116(घ)।।

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