3.15

चौपाई
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ।।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही।।
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।

दोहा/सोरठा
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।15।।

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