verse

1.1.350

चौपाई
चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।
धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।
बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।
जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।

दोहा/सोरठा

1.1.349

चौपाई
करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।
भूषन मनि पट नाना जाती।।करही निछावरि अगनित भाँती।।
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित सफल जग जीवन लेखी।।
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।
देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।
देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।

दोहा/सोरठा

1.1.348

चौपाई
मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।
बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।

दोहा/सोरठा

1.1.347

चौपाई
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।
मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।

1.1.346

चौपाई
मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।
राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।
बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।
हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।
अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।
छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।
सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।
रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।

दोहा/सोरठा

1.1.345

चौपाई
भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।
मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।
जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।
देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।
जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।
सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।
भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।
कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।

दोहा/सोरठा

1.1.344

चौपाई
हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।
झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।
पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।
निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।
बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।
सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।
लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।

दोहा/सोरठा

1.1.343

चौपाई
बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।
जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।

दोहा/सोरठा

1.1.342

चौपाई
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।
मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।
बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।
करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।

1.1.341

चौपाई
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।
जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।
करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।
मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।

दोहा/सोरठा

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