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1.1.296

चौपाई
कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।।
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए।।
भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि।।
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।
ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू।।
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला।।

दोहा/सोरठा
मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।

1.1.295

चौपाई
राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।।
सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी।।
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं।।
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती।।
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी।।
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए।।
दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता।।

दोहा/सोरठा

1.1.294

चौपाई
सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।।
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं।।
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी।।
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।।

1.1.293

चौपाई
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।
कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना।।

दोहा/सोरठा

1.1.292

चौपाई
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे।।
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।।
सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका।।
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।।
तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू।।
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा।।

दोहा/सोरठा

1.1.291

चौपाई
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।।
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी।।
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।।
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।।
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई।।
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने।।

दोहा/सोरठा

1.1.290

चौपाई
पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।।
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।।
बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती।।
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी।।
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई।।
पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।

दोहा/सोरठा

1.1.289

चौपाई
रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।।
मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए।।
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।।
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही।।
दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।।
जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी।।
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।।
जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।

दोहा/सोरठा

1.1.288

चौपाई
बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे।।
कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई।।
तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए।।
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा।।
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी।।
चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।

दोहा/सोरठा
सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।।

1.1.287

चौपाई
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।।
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।।
हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।।
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।।
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।

दोहा/सोरठा

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