verse

1.7.88

चौपाई
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ।।
सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना।।
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना।।
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।।
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।।
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई।।
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना।।

1.7.87

चौपाई
एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना।।
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते।।
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया।।

1.7.86

चौपाई
अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।।
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी।।
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।

1.7.85

चौपाई
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक।।
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना।।
सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी।।
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं।।
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई।।
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें।।
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।

1.7.84

चौपाई
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।।
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं।।
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ।।
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा।।
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू।।
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।

1.7.83

चौपाई
देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई।।
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।।
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी।।
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ।।
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा।।
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी।।
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी।।
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी।।

1.7.82

चौपाई
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।।
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ।।
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ।।
देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई।।
राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना।।
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना।।
करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी।।
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा।।

1.7.81

चौपाई
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता।।
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला।।
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती।।
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना।।
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा।।
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी।।
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता।।
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा।।

1.7.80

चौपाई
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ।।
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं।।
उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया।।
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका।।
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा।।
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला।।
सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा।।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर।।

1.7.79

चौपाई
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर।।
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ।।
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना।।
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी।।
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा।।

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