15

2.3.15

चौपाई
থোরেহি মহসব কহউবুঝাঈ৷ সুনহু তাত মতি মন চিত লাঈ৷৷
মৈং অরু মোর তোর তৈং মাযা৷ জেহিং বস কীন্হে জীব নিকাযা৷৷
গো গোচর জহলগি মন জাঈ৷ সো সব মাযা জানেহু ভাঈ৷৷
তেহি কর ভেদ সুনহু তুম্হ সোঊ৷ বিদ্যা অপর অবিদ্যা দোঊ৷৷
এক দুষ্ট অতিসয দুখরূপা৷ জা বস জীব পরা ভবকূপা৷৷
এক রচই জগ গুন বস জাকেং৷ প্রভু প্রেরিত নহিং নিজ বল তাকেং৷৷
গ্যান মান জহএকউ নাহীং৷ দেখ ব্রহ্ম সমান সব মাহী৷৷
কহিঅ তাত সো পরম বিরাগী৷ তৃন সম সিদ্ধি তীনি গুন ত্যাগী৷৷

2.2.15

चौपाई
প্রিযবাদিনি সিখ দীন্হিউতোহী৷ সপনেহুতো পর কোপু ন মোহী৷৷
সুদিনু সুমংগল দাযকু সোঈ৷ তোর কহা ফুর জেহি দিন হোঈ৷৷
জেঠ স্বামি সেবক লঘু ভাঈ৷ যহ দিনকর কুল রীতি সুহাঈ৷৷
রাম তিলকু জৌং সােহুকালী৷ দেউমাগু মন ভাবত আলী৷৷
কৌসল্যা সম সব মহতারী৷ রামহি সহজ সুভাযপিআরী৷৷
মো পর করহিং সনেহু বিসেষী৷ মৈং করি প্রীতি পরীছা দেখী৷৷
জৌং বিধি জনমু দেই করি ছোহূ৷ হোহুরাম সিয পূত পুতোহূ৷৷
প্রান তেং অধিক রামু প্রিয মোরেং৷ তিন্হ কেং তিলক ছোভু কস তোরেং৷৷

2.1.15

चौपाई
পুনি বংদউসারদ সুরসরিতা৷ জুগল পুনীত মনোহর চরিতা৷৷
মজ্জন পান পাপ হর একা৷ কহত সুনত এক হর অবিবেকা৷৷
গুর পিতু মাতু মহেস ভবানী৷ প্রনবউদীনবংধু দিন দানী৷৷
সেবক স্বামি সখা সিয পী কে৷ হিত নিরুপধি সব বিধি তুলসীকে৷৷
কলি বিলোকি জগ হিত হর গিরিজা৷ সাবর মংত্র জাল জিন্হ সিরিজা৷৷
অনমিল আখর অরথ ন জাপূ৷ প্রগট প্রভাউ মহেস প্রতাপূ৷৷
সো উমেস মোহি পর অনুকূলা৷ করিহিং কথা মুদ মংগল মূলা৷৷
সুমিরি সিবা সিব পাই পসাঊ৷ বরনউরামচরিত চিত চাঊ৷৷
ভনিতি মোরি সিব কৃপাবিভাতী৷ সসি সমাজ মিলি মনহুসুরাতী৷৷

1.7.15

चौपाई
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी।।
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका।।
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।।
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।।
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी।।
नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी।।
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।।

1.6.15

चौपाई
पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा।।
भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला।।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी।।
अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला।।
आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा।।
रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा।।
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना।।

दोहा/सोरठा

1.5.15

चौपाई
कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।

1.4.15

चौपाई
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका।।
अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।

1.3.15

चौपाई
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ।।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही।।
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।

दोहा/सोरठा

1.2.15

चौपाई
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।

1.1.15

चौपाई
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता।।
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका।।
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी।।
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके।।
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।।
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू।।
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला।।
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ।।
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।।

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