18

2.3.18

चौपाई
নাক কান বিনু ভই বিকরারা৷ জনু স্ত্রব সৈল গৈরু কৈ ধারা৷৷
খর দূষন পহিং গই বিলপাতা৷ ধিগ ধিগ তব পৌরুষ বল ভ্রাতা৷৷
তেহি পূছা সব কহেসি বুঝাঈ৷ জাতুধান সুনি সেন বনাঈ৷৷
ধাএ নিসিচর নিকর বরূথা৷ জনু সপচ্ছ কজ্জল গিরি জূথা৷৷
নানা বাহন নানাকারা৷ নানাযুধ ধর ঘোর অপারা৷৷
সুপনখা আগেং করি লীনী৷ অসুভ রূপ শ্রুতি নাসা হীনী৷৷
অসগুন অমিত হোহিং ভযকারী৷ গনহিং ন মৃত্যু বিবস সব ঝারী৷৷
গর্জহি তর্জহিং গগন উড়াহীং৷ দেখি কটকু ভট অতি হরষাহীং৷৷
কোউ কহ জিঅত ধরহু দ্বৌ ভাঈ৷ ধরি মারহু তিয লেহু ছড়াঈ৷৷

2.2.18

चौपाई
চতুর গীর রাম মহতারী৷ বীচু পাই নিজ বাত সারী৷৷
পঠএ ভরতু ভূপ ননিঅউরেং৷ রাম মাতু মত জানব রউরেং৷৷
সেবহিং সকল সবতি মোহি নীকেং৷ গরবিত ভরত মাতু বল পী কেং৷৷
সালু তুম্হার কৌসিলহি মাঈ৷ কপট চতুর নহিং হোই জনাঈ৷৷
রাজহি তুম্হ পর প্রেমু বিসেষী৷ সবতি সুভাউ সকই নহিং দেখী৷৷
রচী প্রংপচু ভূপহি অপনাঈ৷ রাম তিলক হিত লগন ধরাঈ৷৷
যহ কুল উচিত রাম কহুটীকা৷ সবহি সোহাই মোহি সুঠি নীকা৷৷
আগিলি বাত সমুঝি ডরু মোহী৷ দেউ দৈউ ফিরি সো ফলু ওহী৷৷

2.1.18

चौपाई
কপিপতি রীছ নিসাচর রাজা৷ অংগদাদি জে কীস সমাজা৷৷
বংদউসব কে চরন সুহাএ৷ অধম সরীর রাম জিন্হ পাএ৷৷
রঘুপতি চরন উপাসক জেতে৷ খগ মৃগ সুর নর অসুর সমেতে৷৷
বংদউপদ সরোজ সব কেরে৷ জে বিনু কাম রাম কে চেরে৷৷
সুক সনকাদি ভগত মুনি নারদ৷ জে মুনিবর বিগ্যান বিসারদ৷৷
প্রনবউসবহিং ধরনি ধরি সীসা৷ করহু কৃপা জন জানি মুনীসা৷৷
জনকসুতা জগ জননি জানকী৷ অতিসয প্রিয করুনা নিধান কী৷৷
তাকে জুগ পদ কমল মনাবউ জাসু কৃপানিরমল মতি পাবউ৷
পুনি মন বচন কর্ম রঘুনাযক৷ চরন কমল বংদউসব লাযক৷৷
রাজিবনযন ধরেং ধনু সাযক৷ ভগত বিপতি ভংজন সুখ দাযক৷৷

1.7.18

चौपाई
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली।।
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।

1.6.18

चौपाई
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका।।
पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैंटा।।
बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई।।
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई।।
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी।।
एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं।।
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहीं जारी।।
अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।।

1.5.18

चौपाई
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।

दोहा/सोरठा

1.4.18

चौपाई
बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई।।
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालहु जीत निमिष महुँ आनौं।।
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनेउँ सोई।।
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी।।
जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।।
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा।।
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी।।
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना।।

दोहा/सोरठा

1.3.18

चौपाई
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा।।
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता।।
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई।।
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।।
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा।।
सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी।।
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी।।
गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं।।
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।।

1.2.18

चौपाई
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।

दोहा/सोरठा

1.1.18

चौपाई
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा।।
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए।।
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।।
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे।।
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद।।
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा।।
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक।।

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