36

2.5.36

चौपाई
উহানিসাচর রহহিং সসংকা৷ জব তে জারি গযউ কপি লংকা৷৷
নিজ নিজ গৃহসব করহিং বিচারা৷ নহিং নিসিচর কুল কের উবারা৷৷
জাসু দূত বল বরনি ন জাঈ৷ তেহি আএপুর কবন ভলাঈ৷৷
দূতন্হি সন সুনি পুরজন বানী৷ মংদোদরী অধিক অকুলানী৷৷
রহসি জোরি কর পতি পগ লাগী৷ বোলী বচন নীতি রস পাগী৷৷
কংত করষ হরি সন পরিহরহূ৷ মোর কহা অতি হিত হিযধরহু৷৷
সমুঝত জাসু দূত কই করনী৷ স্ত্রবহীং গর্ভ রজনীচর ধরনী৷৷
তাসু নারি নিজ সচিব বোলাঈ৷ পঠবহু কংত জো চহহু ভলাঈ৷৷
তব কুল কমল বিপিন দুখদাঈ৷ সীতা সীত নিসা সম আঈ৷৷

2.3.36

चौपाई
মংত্র জাপ মম দৃঢ় বিস্বাসা৷ পংচম ভজন সো বেদ প্রকাসা৷৷
ছঠ দম সীল বিরতি বহু করমা৷ নিরত নিরংতর সজ্জন ধরমা৷৷
সাতবসম মোহি ময জগ দেখা৷ মোতেং সংত অধিক করি লেখা৷৷
আঠবজথালাভ সংতোষা৷ সপনেহুনহিং দেখই পরদোষা৷৷
নবম সরল সব সন ছলহীনা৷ মম ভরোস হিযহরষ ন দীনা৷৷
নব মহুএকউ জিন্হ কে হোঈ৷ নারি পুরুষ সচরাচর কোঈ৷৷
সোই অতিসয প্রিয ভামিনি মোরে৷ সকল প্রকার ভগতি দৃঢ় তোরেং৷৷
জোগি বৃংদ দুরলভ গতি জোঈ৷ তো কহুআজু সুলভ ভই সোঈ৷৷
মম দরসন ফল পরম অনূপা৷ জীব পাব নিজ সহজ সরূপা৷৷
জনকসুতা কই সুধি ভামিনী৷ জানহি কহু করিবরগামিনী৷৷

2.2.36

चौपाई
চহত ন ভরত ভূপতহি ভোরেং৷ বিধি বস কুমতি বসী জিয তোরেং৷৷
সো সবু মোর পাপ পরিনামূ৷ ভযউ কুঠাহর জেহিং বিধি বামূ৷৷
সুবস বসিহি ফিরি অবধ সুহাঈ৷ সব গুন ধাম রাম প্রভুতাঈ৷৷
করিহহিং ভাই সকল সেবকাঈ৷ হোইহি তিহুপুর রাম বড়াঈ৷৷
তোর কলংকু মোর পছিতাঊ৷ মুএহুন মিটহি ন জাইহি কাঊ৷৷
অব তোহি নীক লাগ করু সোঈ৷ লোচন ওট বৈঠু মুহু গোঈ৷৷
জব লগি জিঔং কহউকর জোরী৷ তব লগি জনি কছু কহসি বহোরী৷৷
ফিরি পছিতৈহসি অংত অভাগী৷ মারসি গাই নহারু লাগী৷৷

2.1.36

चौपाई
সংভু প্রসাদ সুমতি হিযহুলসী৷ রামচরিতমানস কবি তুলসী৷৷
করই মনোহর মতি অনুহারী৷ সুজন সুচিত সুনি লেহু সুধারী৷৷
সুমতি ভূমি থল হৃদয অগাধূ৷ বেদ পুরান উদধি ঘন সাধূ৷৷
বরষহিং রাম সুজস বর বারী৷ মধুর মনোহর মংগলকারী৷৷
লীলা সগুন জো কহহিং বখানী৷ সোই স্বচ্ছতা করই মল হানী৷৷
প্রেম ভগতি জো বরনি ন জাঈ৷ সোই মধুরতা সুসীতলতাঈ৷৷
সো জল সুকৃত সালি হিত হোঈ৷ রাম ভগত জন জীবন সোঈ৷৷
মেধা মহি গত সো জল পাবন৷ সকিলি শ্রবন মগ চলেউ সুহাবন৷৷
ভরেউ সুমানস সুথল থিরানা৷ সুখদ সীত রুচি চারু চিরানা৷৷

1.7.36

चौपाई
सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए।।
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी।।
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।

1.6.36

चौपाई
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।।
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।

1.5.36

चौपाई
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।।

1.3.36

चौपाई
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई।।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।

1.2.36

चौपाई
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।

दोहा/सोरठा

1.1.36

चौपाई
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी।।
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी।।
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू।।
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी।।
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई।।
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई।।
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन।।
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना।।

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