3

2.3.3

चौपाई
রঘুপতি চিত্রকূট বসি নানা৷ চরিত কিএ শ্রুতি সুধা সমানা৷৷
বহুরি রাম অস মন অনুমানা৷ হোইহি ভীর সবহিং মোহি জানা৷৷
সকল মুনিন্হ সন বিদা করাঈ৷ সীতা সহিত চলে দ্বৌ ভাঈ৷৷
অত্রি কে আশ্রম জব প্রভু গযঊ৷ সুনত মহামুনি হরষিত ভযঊ৷৷
পুলকিত গাত অত্রি উঠি ধাএ৷ দেখি রামু আতুর চলি আএ৷৷
করত দংডবত মুনি উর লাএ৷ প্রেম বারি দ্বৌ জন অন্হবাএ৷৷
দেখি রাম ছবি নযন জুড়ানে৷ সাদর নিজ আশ্রম তব আনে৷৷
করি পূজা কহি বচন সুহাএ৷ দিএ মূল ফল প্রভু মন ভাএ৷৷

2.2.3

चौपाई
কহই ভুআলু সুনিঅ মুনিনাযক৷ ভএ রাম সব বিধি সব লাযক৷৷
সেবক সচিব সকল পুরবাসী৷ জে হমারে অরি মিত্র উদাসী৷৷
সবহি রামু প্রিয জেহি বিধি মোহী৷ প্রভু অসীস জনু তনু ধরি সোহী৷৷
বিপ্র সহিত পরিবার গোসাঈং৷ করহিং ছোহু সব রৌরিহি নাঈ৷৷
জে গুর চরন রেনু সির ধরহীং৷ তে জনু সকল বিভব বস করহীং৷৷
মোহি সম যহু অনুভযউ ন দূজেং৷ সবু পাযউরজ পাবনি পূজেং৷৷
অব অভিলাষু একু মন মোরেং৷ পূজহি নাথ অনুগ্রহ তোরেং৷৷
মুনি প্রসন্ন লখি সহজ সনেহূ৷ কহেউ নরেস রজাযসু দেহূ৷৷

2.1.3

चौपाई
মজ্জন ফল পেখিঅ ততকালা৷ কাক হোহিং পিক বকউ মরালা৷৷
সুনি আচরজ করৈ জনি কোঈ৷ সতসংগতি মহিমা নহিং গোঈ৷৷
বালমীক নারদ ঘটজোনী৷ নিজ নিজ মুখনি কহী নিজ হোনী৷৷
জলচর থলচর নভচর নানা৷ জে জড় চেতন জীব জহানা৷৷
মতি কীরতি গতি ভূতি ভলাঈ৷ জব জেহিং জতন জহাজেহিং পাঈ৷৷
সো জানব সতসংগ প্রভাঊ৷ লোকহুবেদ ন আন উপাঊ৷৷
বিনু সতসংগ বিবেক ন হোঈ৷ রাম কৃপা বিনু সুলভ ন সোঈ৷৷
সতসংগত মুদ মংগল মূলা৷ সোই ফল সিধি সব সাধন ফূলা৷৷
সঠ সুধরহিং সতসংগতি পাঈ৷ পারস পরস কুধাত সুহাঈ৷৷
বিধি বস সুজন কুসংগত পরহীং৷ ফনি মনি সম নিজ গুন অনুসরহীং৷৷

1.7.3

चौपाई
हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई।।
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी।।
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी।।

1.6.3

चौपाई
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए।।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर।।
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई।।
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।।

1.5.3

चौपाई
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।

1.4.3

चौपाई
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें।।
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा।।
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।।
अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई।।
तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा।।
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना।।
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ।।

दोहा/सोरठा

1.3.3

चौपाई
रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना।।
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना।।
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई।।
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ।।
पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए।।
करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए।।
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने।।
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए।।

दोहा/सोरठा

1.2.3

चौपाई
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।।
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।

दोहा/सोरठा

1.1.3

चौपाई
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।।
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।

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