41

2.5.41

चौपाई
বুধ পুরান শ্রুতি সংমত বানী৷ কহী বিভীষন নীতি বখানী৷৷
সুনত দসানন উঠা রিসাঈ৷ খল তোহি নিকট মুত্যু অব আঈ৷৷
জিঅসি সদা সঠ মোর জিআবা৷ রিপু কর পচ্ছ মূঢ় তোহি ভাবা৷৷
কহসি ন খল অস কো জগ মাহীং৷ ভুজ বল জাহি জিতা মৈং নাহী৷৷
মম পুর বসি তপসিন্হ পর প্রীতী৷ সঠ মিলু জাই তিন্হহি কহু নীতী৷৷
অস কহি কীন্হেসি চরন প্রহারা৷ অনুজ গহে পদ বারহিং বারা৷৷
উমা সংত কই ইহই বড়াঈ৷ মংদ করত জো করই ভলাঈ৷৷
তুম্হ পিতু সরিস ভলেহিং মোহি মারা৷ রামু ভজেং হিত নাথ তুম্হারা৷৷
সচিব সংগ লৈ নভ পথ গযঊ৷ সবহি সুনাই কহত অস ভযঊ৷৷

2.3.41

चौपाई
দেখি রাম অতি রুচির তলাবা৷ মজ্জনু কীন্হ পরম সুখ পাবা৷৷
দেখী সুংদর তরুবর ছাযা৷ বৈঠে অনুজ সহিত রঘুরাযা৷৷
তহপুনি সকল দেব মুনি আএ৷ অস্তুতি করি নিজ ধাম সিধাএ৷৷
বৈঠে পরম প্রসন্ন কৃপালা৷ কহত অনুজ সন কথা রসালা৷৷
বিরহবংত ভগবংতহি দেখী৷ নারদ মন ভা সোচ বিসেষী৷৷
মোর সাপ করি অংগীকারা৷ সহত রাম নানা দুখ ভারা৷৷
ঐসে প্রভুহি বিলোকউজাঈ৷ পুনি ন বনিহি অস অবসরু আঈ৷৷
যহ বিচারি নারদ কর বীনা৷ গএ জহাপ্রভু সুখ আসীনা৷৷
গাবত রাম চরিত মৃদু বানী৷ প্রেম সহিত বহু ভাি বখানী৷৷
করত দংডবত লিএ উঠাঈ৷ রাখে বহুত বার উর লাঈ৷৷

2.2.41

चौपाई
নিধরক বৈঠি কহই কটু বানী৷ সুনত কঠিনতা অতি অকুলানী৷৷
জীভ কমান বচন সর নানা৷ মনহুমহিপ মৃদু লচ্ছ সমানা৷৷
জনু কঠোরপনু ধরেং সরীরূ৷ সিখই ধনুষবিদ্যা বর বীরূ৷৷
সব প্রসংগু রঘুপতিহি সুনাঈ৷ বৈঠি মনহুতনু ধরি নিঠুরাঈ৷৷
মন মুসকাই ভানুকুল ভানু৷ রামু সহজ আনংদ নিধানূ৷৷
বোলে বচন বিগত সব দূষন৷ মৃদু মংজুল জনু বাগ বিভূষন৷৷
সুনু জননী সোই সুতু বড়ভাগী৷ জো পিতু মাতু বচন অনুরাগী৷৷
তনয মাতু পিতু তোষনিহারা৷ দুর্লভ জননি সকল সংসারা৷৷

2.1.41

चौपाई
সীয স্বযংবর কথা সুহাঈ৷ সরিত সুহাবনি সো ছবি ছাঈ৷৷
নদী নাব পটু প্রস্ন অনেকা৷ কেবট কুসল উতর সবিবেকা৷৷
সুনি অনুকথন পরস্পর হোঈ৷ পথিক সমাজ সোহ সরি সোঈ৷৷
ঘোর ধার ভৃগুনাথ রিসানী৷ ঘাট সুবদ্ধ রাম বর বানী৷৷
সানুজ রাম বিবাহ উছাহূ৷ সো সুভ উমগ সুখদ সব কাহূ৷৷
কহত সুনত হরষহিং পুলকাহীং৷ তে সুকৃতী মন মুদিত নহাহীং৷৷
রাম তিলক হিত মংগল সাজা৷ পরব জোগ জনু জুরে সমাজা৷৷
কাঈ কুমতি কেকঈ কেরী৷ পরী জাসু ফল বিপতি ঘনেরী৷৷

1.7.41

चौपाई
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता।।
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक।।
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।

1.6.41

चौपाई
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।

1.5.41

चौपाई
बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।।

1.3.41

चौपाई
देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा।।
देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया।।
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए।।
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला।।
बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी।।
मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा।।
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई।।
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना।।
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी।।

1.2.41

चौपाई
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।

दोहा/सोरठा

1.1.41

चौपाई
सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई।।
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका।।
सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई।।
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी।।
सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू।।
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं।।
राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।।
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी।।

दोहा/सोरठा

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