1.1.151

चौपाई
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी।।
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ।।
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।

दोहा/सोरठा
तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।151।।

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