1.1.208

चौपाई
सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई।।
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।

दोहा/सोरठा
सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208(क)।।
पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208(ख)।।

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