1.1.333

चौपाई
पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।
जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।
बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।
भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा।।
तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।
मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।
कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।

दोहा/सोरठा
दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: