1.2.143

चौपाई
धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू।।
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।।
सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी।।
चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे।।
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें।।
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही।।
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती।।

दोहा/सोरठा
भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग।।143।।

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