ayodhyakaanda

1.2.59

चौपाई
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।।
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई।।
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।।
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।।
पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।।
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।।
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।।

दोहा/सोरठा

1.2.58

चौपाई
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी।।
बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता।।
चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।।
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।
चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी।।
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं।।
मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी।।
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी।।

दोहा/सोरठा

1.2.57

चौपाई
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना।।
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई।।
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ।।
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।।
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी।।
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा।।
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।

दोहा/सोरठा

1.2.56

चौपाई
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना।।
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी।।
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू।।
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी।।
जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू।।
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के।।
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ।।

दोहा/सोरठा

1.2.55

चौपाई
राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू।।
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू।।
धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी।।
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू।।
कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी।।
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी।।
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका।।

दोहा/सोरठा

1.2.54

चौपाई
बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके।।
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी।।
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू।।
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी।।
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी।।
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे।।
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा।।
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू।।

दोहा/सोरठा

1.2.53

चौपाई
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।।
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ।।
मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।।
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला।।
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।।
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें।।

दोहा/सोरठा

1.2.52

चौपाई
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।।
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे।।
बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता।।
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए।।
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।।
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी।।
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई।।

दोहा/सोरठा

1.2.51

चौपाई
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।।
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी।।
राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई।।
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं।।
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा।।
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी।।
अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई।।
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ।।

दोहा/सोरठा

1.2.49

चौपाई
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।

दोहा/सोरठा

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