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1.6.3

चौपाई
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं।।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए।।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर।।
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई।।
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।।

1.6.2

चौपाई
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।।
करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना।।
सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए।।
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।

दोहा/सोरठा

1.6.1

चौपाई
यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा।।
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी।।
तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा।।
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी।।
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई।।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।।
बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी।।
राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू।।
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।

1.6.119

चौपाई 
अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई।।
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो।।
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई।।
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर।।
राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी।।
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर।।
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी।।
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा।।
कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता।।

1.6

श्लोक
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।1।।
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्।।2।।
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे।।3।।

1.6.121

चौपाई
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई।।
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु।।
तुरत पवनसुत गवनत भयउ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ।।
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही।।
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी।।
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए।।
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो।।
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी।।
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा।।

1.6.120

चौपाई
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा।।
कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना।।
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा।।
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा।।
बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई।।
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता।।
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा।।
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी।।
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि।।।

1.6.118

चौपाई
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।।
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा।।
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया।।
तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो।।
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू।।
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर।।
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा।।
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा।।
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं।।

1.6.117

चौपाई
सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के।।
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने।।
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो।।
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा।।
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन।।
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही।।
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।।
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता।।

1.6.116

चौपाई
करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए।।
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी।।
सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो।।
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती।।
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे।।
देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा।।
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ।।
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला।।

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