lankakaanda

1.6.85

चौपाई
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई।।
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा।।
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर।।
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए।।
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका।।
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा।।
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।।
अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता।।

1.6.84

चौपाई
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा।।
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा।।
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा।।
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही।।
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो।।
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता।।
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला।।
पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए।।

1.6.83

चौपाई
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू।।
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती।।
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा।।
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे।।
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा।।
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला।।
पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं।।
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी।।

1.6.82

चौपाई
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर।।
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा।।
लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू।।
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी।।
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा।।
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना।।
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई।।
तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने।।

1.6.81

चौपाई
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना।।
हमहू उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा।।
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते।।
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं।।
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं।।
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं।।
निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू।।
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे।।

1.6.79

चौपाई
चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा।।
बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना।।
चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे।।
बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया।।
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी।।
चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं।।
उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई।।
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं।।
भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई।।

1.6.78

चौपाई
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन।।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा।।
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला।।
सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई।।
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा।।
अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा।।
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली।।
असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला।।

1.6.71

चौपाई
सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो।।
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ।।
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा।।
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा।।
सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा।।
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर।।
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना।।
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं।।

1.6.49

चौपाई
परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही।।
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे।।
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही।।
तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।।
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा।।
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा।।
सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा।।
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा।।
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा।।

1.6.41

चौपाई
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।

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