चौपाई
देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी।।
रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता।।
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता।।
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी।।
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।।
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा।।
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं।।
बुधि बल निसिचर परइ न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु संभार् यो।।