1.1.343

चौपाई
बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।
जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।

दोहा/सोरठा
बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।

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