1.2.267

चौपाई
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला।।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई।।
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला।।
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई।।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं।।
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।

दोहा/सोरठा
जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच।।267।।

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