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1.1.159

चौपाई
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ।।
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी।।
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें।।
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें।।
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा।।
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई।।
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा।।
कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा।।

दोहा/सोरठा

1.1.158

चौपाई
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा।।
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई।।
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी।।
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी।।
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा।।
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा।।
राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना।।
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा।।

दोहा/सोरठा

1.1.157

चौपाई
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी।।
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना।।
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा।।
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा।।
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू।।
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू।।
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा।।
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई।।

दोहा/सोरठा

1.1.156

चौपाई
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना।।
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी।।
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा।।
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ।।
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू।।
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं।।
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई।।
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ।।

दोहा/सोरठा

1.1.155

चौपाई
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई।।
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी।।
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती।।
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा।।
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने।।
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना।।
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा।।
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए।।

दोहा/सोरठा

1.1.154

चौपाई
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना।।
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा।।
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा।।
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना।।
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई।।
जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई।।
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें।।
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला।।

दोहा/सोरठा

1.1.153

चौपाई
सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी।।
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू।।
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना।।
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा।।
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही।।
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा।।
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती।।
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा।।

दोहा/सोरठा

1.1.152

चौपाई
इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे।।
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा।।
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना।।
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला।।
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा।।

दोहा/सोरठा

1.1.151

चौपाई
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।
मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी।।
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ।।
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।

1.1.150

चौपाई
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले।।
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे।।
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई।।
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।।
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।।

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