चौपाई
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी।।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा।।
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा।।
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।