20

2.3.20

छंद
তব চলে জান ববান করাল৷ ফুংকরত জনু বহু ব্যাল৷৷
কোপেউ সমর শ্রীরাম৷ চলে বিসিখ নিসিত নিকাম৷৷
অবলোকি খরতর তীর৷ মুরি চলে নিসিচর বীর৷৷
ভএ ক্রুদ্ধ তীনিউ ভাই৷ জো ভাগি রন তে জাই৷৷
তেহি বধব হম নিজ পানি৷ ফিরে মরন মন মহুঠানি৷৷
আযুধ অনেক প্রকার৷ সনমুখ তে করহিং প্রহার৷৷
রিপু পরম কোপে জানি৷ প্রভু ধনুষ সর সংধানি৷৷
ছা়ে বিপুল নারাচ৷ লগে কটন বিকট পিসাচ৷৷
উর সীস ভুজ কর চরন৷ জহতহলগে মহি পরন৷৷
চিক্করত লাগত বান৷ ধর পরত কুধর সমান৷৷
ভট কটত তন সত খংড৷ পুনি উঠত করি পাষংড৷৷

2.2.20

चौपाई
কৈকযসুতা সুনত কটু বানী৷ কহি ন সকই কছু সহমি সুখানী৷৷
তন পসেউ কদলী জিমি কাী৷ কুবরীং দসন জীভ তব চাী৷৷
কহি কহি কোটিক কপট কহানী৷ ধীরজু ধরহু প্রবোধিসি রানী৷৷
ফিরা করমু প্রিয লাগি কুচালী৷ বকিহি সরাহই মানি মরালী৷৷
সুনু মংথরা বাত ফুরি তোরী৷ দহিনি আি নিত ফরকই মোরী৷৷
দিন প্রতি দেখউরাতি কুসপনে৷ কহউন তোহি মোহ বস অপনে৷৷
কাহ করৌ সখি সূধ সুভাঊ৷ দাহিন বাম ন জানউকাঊ৷৷

दोहा/सोरठा
অপনে চলত ন আজু লগি অনভল কাহুক কীন্হ৷
কেহিং অঘ একহি বার মোহি দৈঅদুসহ দুখু দীন্হ৷৷20৷৷

2.1.20

चौपाई
আখর মধুর মনোহর দোঊ৷ বরন বিলোচন জন জিয জোঊ৷৷
সুমিরত সুলভ সুখদ সব কাহূ৷ লোক লাহু পরলোক নিবাহূ৷৷
কহত সুনত সুমিরত সুঠি নীকে৷ রাম লখন সম প্রিয তুলসী কে৷৷
বরনত বরন প্রীতি বিলগাতী৷ ব্রহ্ম জীব সম সহজ সাতী৷৷
নর নারাযন সরিস সুভ্রাতা৷ জগ পালক বিসেষি জন ত্রাতা৷৷
ভগতি সুতিয কল করন বিভূষন৷ জগ হিত হেতু বিমল বিধু পূষন ৷
স্বাদ তোষ সম সুগতি সুধা কে৷ কমঠ সেষ সম ধর বসুধা কে৷৷
জন মন মংজু কংজ মধুকর সে৷ জীহ জসোমতি হরি হলধর সে৷৷

1.7.20

चौपाई
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा।।
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।
राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई।।

1.6.20

चौपाई
कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर।।
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई।।
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।।
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा।।
नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।।
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी।।
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।

दोहा/सोरठा

1.5.20

चौपाई
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।

दोहा/सोरठा

1.4.20

चौपाई
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही।।
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना।।
सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा।।
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना।।
करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए।।
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा।।
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं।।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा।।
पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।

1.3.20

छंद
तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल।।
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम।।
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर।।
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ।।
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि।।
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार।।
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि।।
छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच।।
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन।।
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान।।
भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड।।

1.2.20

चौपाई
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।

दोहा/सोरठा
अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।

1.1.20

चौपाई
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ।।
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू।।
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के।।
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती।।
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता।।
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के।।
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से।।

दोहा/सोरठा

Pages

Subscribe to RSS - 20