29

2.3.29

चौपाई
হা জগ এক বীর রঘুরাযা৷ কেহিং অপরাধ বিসারেহু দাযা৷৷
আরতি হরন সরন সুখদাযক৷ হা রঘুকুল সরোজ দিননাযক৷৷
হা লছিমন তুম্হার নহিং দোসা৷ সো ফলু পাযউকীন্হেউরোসা৷৷
বিবিধ বিলাপ করতি বৈদেহী৷ ভূরি কৃপা প্রভু দূরি সনেহী৷৷
বিপতি মোরি কো প্রভুহি সুনাবা৷ পুরোডাস চহ রাসভ খাবা৷৷
সীতা কৈ বিলাপ সুনি ভারী৷ ভএ চরাচর জীব দুখারী৷৷
গীধরাজ সুনি আরত বানী৷ রঘুকুলতিলক নারি পহিচানী৷৷
অধম নিসাচর লীন্হে জাঈ৷ জিমি মলেছ বস কপিলা গাঈ৷৷
সীতে পুত্রি করসি জনি ত্রাসা৷ করিহউজাতুধান কর নাসা৷৷

2.2.29

चौपाई
সুনহু প্রানপ্রিয ভাবত জী কা৷ দেহু এক বর ভরতহি টীকা৷৷
মাগউদূসর বর কর জোরী৷ পুরবহু নাথ মনোরথ মোরী৷৷
তাপস বেষ বিসেষি উদাসী৷ চৌদহ বরিস রামু বনবাসী৷৷
সুনি মৃদু বচন ভূপ হিযসোকূ৷ সসি কর ছুঅত বিকল জিমি কোকূ৷৷
গযউ সহমি নহিং কছু কহি আবা৷ জনু সচান বন ঝপটেউ লাবা৷৷
বিবরন ভযউ নিপট নরপালূ৷ দামিনি হনেউ মনহুতরু তালূ৷৷
মাথে হাথ মূদি দোউ লোচন৷ তনু ধরি সোচু লাগ জনু সোচন৷৷
মোর মনোরথু সুরতরু ফূলা৷ ফরত করিনি জিমি হতেউ সমূলা৷৷
অবধ উজারি কীন্হি কৈকেঈং৷ দীন্হসি অচল বিপতি কৈ নেঈং৷৷

2.1.29

चौपाई
অতি বড়ি মোরি ঢিঠাঈ খোরী৷ সুনি অঘ নরকহুনাক সকোরী৷৷
সমুঝি সহম মোহি অপডর অপনেং৷ সো সুধি রাম কীন্হি নহিং সপনেং৷৷
সুনি অবলোকি সুচিত চখ চাহী৷ ভগতি মোরি মতি স্বামি সরাহী৷৷
কহত নসাই হোই হিযনীকী৷ রীঝত রাম জানি জন জী কী৷৷
রহতি ন প্রভু চিত চূক কিএ কী৷ করত সুরতি সয বার হিএ কী৷৷
জেহিং অঘ বধেউ ব্যাধ জিমি বালী৷ ফিরি সুকংঠ সোই কীন্হ কুচালী৷৷
সোই করতূতি বিভীষন কেরী৷ সপনেহুসো ন রাম হিযহেরী৷৷
তে ভরতহি ভেংটত সনমানে৷ রাজসভারঘুবীর বখানে৷৷

1.7.29

चौपाई
दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।।
राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर।।
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी।।
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।

1.6.29

चौपाई
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।।
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।
सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही।।
सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा।।

1.5.29

चौपाई
जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।

दोहा/सोरठा

1.4.29

चौपाई
जो नाघइ सत जोजन सागर । करइ सो राम काज मति आगर ।।
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा।।
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई।।
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ।।
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा।।
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा।।
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी।।

दोहा/सोरठा

1.3.29

चौपाई
हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक।।
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।।
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी।।
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा।।

1.2.29

चौपाई
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।

1.1.29

चौपाई
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की।।
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली।।
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने।।

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