30

2.3.30

चौपाई
রঘুপতি অনুজহি আবত দেখী৷ বাহিজ চিংতা কীন্হি বিসেষী৷৷
জনকসুতা পরিহরিহু অকেলী৷ আযহু তাত বচন মম পেলী৷৷
নিসিচর নিকর ফিরহিং বন মাহীং৷ মম মন সীতা আশ্রম নাহীং৷৷
গহি পদ কমল অনুজ কর জোরী৷ কহেউ নাথ কছু মোহি ন খোরী৷৷
অনুজ সমেত গএ প্রভু তহবা গোদাবরি তট আশ্রম জহবা৷
আশ্রম দেখি জানকী হীনা৷ ভএ বিকল জস প্রাকৃত দীনা৷৷
হা গুন খানি জানকী সীতা৷ রূপ সীল ব্রত নেম পুনীতা৷৷
লছিমন সমুঝাএ বহু ভাী৷ পূছত চলে লতা তরু পাী৷৷
হে খগ মৃগ হে মধুকর শ্রেনী৷ তুম্হ দেখী সীতা মৃগনৈনী৷৷

2.2.30

चौपाई
এহি বিধি রাউ মনহিং মন ঝাা৷ দেখি কুভাি কুমতি মন মাখা৷৷
ভরতু কি রাউর পূত ন হোহীং৷ আনেহু মোল বেসাহি কি মোহী৷৷
জো সুনি সরু অস লাগ তুম্হারেং৷ কাহে ন বোলহু বচনু সারে৷৷
দেহু উতরু অনু করহু কি নাহীং৷ সত্যসংধ তুম্হ রঘুকুল মাহীং৷৷
দেন কহেহু অব জনি বরু দেহূ৷ তজহুসত্য জগ অপজসু লেহূ৷৷
সত্য সরাহি কহেহু বরু দেনা৷ জানেহু লেইহি মাগি চবেনা৷৷
সিবি দধীচি বলি জো কছু ভাষা৷ তনু ধনু তজেউ বচন পনু রাখা৷৷
অতি কটু বচন কহতি কৈকেঈ৷ মানহুলোন জরে পর দেঈ৷৷

2.1.30

चौपाई
জাগবলিক জো কথা সুহাঈ৷ ভরদ্বাজ মুনিবরহি সুনাঈ৷৷
কহিহউসোই সংবাদ বখানী৷ সুনহুসকল সজ্জন সুখু মানী৷৷
সংভু কীন্হ যহ চরিত সুহাবা৷ বহুরি কৃপা করি উমহি সুনাবা৷৷
সোই সিব কাগভুসুংডিহি দীন্হা৷ রাম ভগত অধিকারী চীন্হা৷৷
তেহি সন জাগবলিক পুনি পাবা৷ তিন্হ পুনি ভরদ্বাজ প্রতি গাবা৷৷
তে শ্রোতা বকতা সমসীলা৷ সবরসী জানহিং হরিলীলা৷৷
জানহিং তীনি কাল নিজ গ্যানা৷ করতল গত আমলক সমানা৷৷
ঔরউ জে হরিভগত সুজানা৷ কহহিং সুনহিং সমুঝহিং বিধি নানা৷৷

1.7.30

चौपाई
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि।।

1.6.30

चौपाई
अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही।।
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ।।
बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।।
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा।।
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी।।
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता।।
जौं न राम अपमानहि डरउँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।।

दोहा/सोरठा

1.5.30

चौपाई
जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।

दोहा/सोरठा

1.4.30

चौपाई
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा।।
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक।।
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।

1.3.30

चौपाई
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी।।
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली।।
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं।।
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी।।
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ।।
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना।।
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती।।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।

1.2.30

चौपाई
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।

1.1.30

चौपाई
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।।
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी।।
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना।।
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।

दोहा/सोरठा

Pages

Subscribe to RSS - 30