devanagari

1.2.98

चौपाई
पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा।।
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें।।
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई।।
ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू।।
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा।।
अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा।।
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा।।

दोहा/सोरठा

1.2.97

चौपाई
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना।।
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू।।
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी।।
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई।।
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।।
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी।।

1.2.96

चौपाई
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें।।
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें।।
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू।।
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई।।
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू।।
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया।।
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।

1.2.95

चौपाई
तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई।।
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा।।
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा।।
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा।।
संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।।
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।।

दोहा/सोरठा

1.2.94

चौपाई
सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा।।
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा।।
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।।
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा।।
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई।।
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी।।

दोहा/सोरठा

1.2.93

चौपाई
अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू।।
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा।।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।

दोहा/सोरठा

1.2.92

चौपाई
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी।।
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।

दोहा/सोरठा

1.2.91

चौपाई
बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई।।
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं।।
ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए।।
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी।।
जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं।।
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।
रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही।।
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू।।

दोहा/सोरठा

1.2.90

चौपाई
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।।
कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन।।
गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती।।
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई।।
सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू।।
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई।।
भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा।।
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।

दोहा/सोरठा

1.2.89

चौपाई
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी।।
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा।।
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना।।
लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा।।
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।।
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।।
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी।।

दोहा/सोरठा

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