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1.1.276

चौपाई
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।

1.1.275

चौपाई
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।

दोहा/सोरठा

1.1.274

चौपाई
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

1.1.273

चौपाई
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

1.1.272

चौपाई
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

दोहा/सोरठा

1.1.271

चौपाई
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।

दोहा/सोरठा

1.1.270

चौपाई
समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए।।
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे।।
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।।
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू।।
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।।
सुर मुनि नाग नगर नर नारी।।सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।
मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।

दोहा/सोरठा

1.1.269

चौपाई
देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।।
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी।।
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं।।
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।
रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा।।
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।

दोहा/सोरठा

1.1.268

चौपाई
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा।।
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।।
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।।
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें।।

दोहा/सोरठा

1.1.267

चौपाई
बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी।।
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।
रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।

दोहा/सोरठा

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