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1.1.266

चौपाई
तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे।।
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई।।
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी।।
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई।।
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।।

दोहा/सोरठा

1.1.265

चौपाई
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।
सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं।।
महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।
सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।

दोहा/सोरठा

1.1.264

चौपाई
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।।
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।
तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी।।
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।।
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।।
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।

दोहा/सोरठा

1.1.263

चौपाई
झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई।।
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।।
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी।।
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई।।
श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।।
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।
रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।।
सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।

दोहा/सोरठा

1.1.262

चौपाई
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।
कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।
रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।।
बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना।।
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा।।
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला।।
रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी।।
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी।।

दोहा/सोरठा

1.1.260

चौपाई
दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।
रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।
चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।
संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू।।

दोहा/सोरठा

1.1.259

चौपाई
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।

दोहा/सोरठा

1.1.258

चौपाई
नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।

दोहा/सोरठा

1.1.257

चौपाई
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।।
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी।।
सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।
मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।

दोहा/सोरठा

1.1.256

चौपाई
सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे।।
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।।
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।

दोहा/सोरठा

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