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1.1.255

चौपाई
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।
भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं।।

दोहा/सोरठा

1.1.254

चौपाई
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।
सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।

दोहा/सोरठा

1.1.253

चौपाई
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।

दोहा/सोरठा

1.1.252

चौपाई
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।
अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।

दोहा/सोरठा

1.1.251

चौपाई
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।

दोहा/सोरठा

1.1.250

चौपाई
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।।
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे।।
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।।
त्रिभुवन जय समेत बैदेही।।बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे।।
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं।।
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं।।

दोहा/सोरठा

1.1.249

चौपाई
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू।।
जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू।।
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।
तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।

दोहा/सोरठा

1.1.248

चौपाई
चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।।
सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।
भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।
रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई।।
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।

दोहा/सोरठा
गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।।

1.1.247

चौपाई
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।

दोहा/सोरठा

1.1.246

चौपाई
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।

दोहा/सोरठा

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