8

2.3.8

चौपाई
কহ মুনি সুনু রঘুবীর কৃপালা৷ সংকর মানস রাজমরালা৷৷
জাত রহেউবিরংচি কে ধামা৷ সুনেউশ্রবন বন ঐহহিং রামা৷৷
চিতবত পংথ রহেউদিন রাতী৷ অব প্রভু দেখি জুড়ানী ছাতী৷৷
নাথ সকল সাধন মৈং হীনা৷ কীন্হী কৃপা জানি জন দীনা৷৷
সো কছু দেব ন মোহি নিহোরা৷ নিজ পন রাখেউ জন মন চোরা৷৷
তব লগি রহহু দীন হিত লাগী৷ জব লগি মিলৌং তুম্হহি তনু ত্যাগী৷৷
জোগ জগ্য জপ তপ ব্রত কীন্হা৷ প্রভু কহদেই ভগতি বর লীন্হা৷৷
এহি বিধি সর রচি মুনি সরভংগা৷ বৈঠে হৃদযছাড়ি সব সংগা৷৷

2.2.8

चौपाई
প্রথম জাই জিন্হ বচন সুনাএ৷ ভূষন বসন ভূরি তিন্হ পাএ৷৷
প্রেম পুলকি তন মন অনুরাগীং৷ মংগল কলস সজন সব লাগীং৷৷
চৌকেং চারু সুমিত্রাপুরী৷ মনিময বিবিধ ভাি অতি রুরী৷৷
আন মগন রাম মহতারী৷ দিএ দান বহু বিপ্র হারী৷৷
পূজীং গ্রামদেবি সুর নাগা৷ কহেউ বহোরি দেন বলিভাগা৷৷
জেহি বিধি হোই রাম কল্যানূ৷ দেহু দযা করি সো বরদানূ৷৷
গাবহিং মংগল কোকিলবযনীং৷ বিধুবদনীং মৃগসাবকনযনীং৷৷

दोहा/सोरठा
রাম রাজ অভিষেকু সুনি হিযহরষে নর নারি৷
লগে সুমংগল সজন সব বিধি অনুকূল বিচারি৷৷8৷৷

2.1.8

चौपाई
আকর চারি লাখ চৌরাসী৷ জাতি জীব জল থল নভ বাসী৷৷
সীয রামময সব জগ জানী৷ করউপ্রনাম জোরি জুগ পানী৷৷
জানি কৃপাকর কিংকর মোহূ৷ সব মিলি করহু ছাড়ি ছল ছোহূ৷৷
নিজ বুধি বল ভরোস মোহি নাহীং৷ তাতেং বিনয করউসব পাহী৷৷
করন চহউরঘুপতি গুন গাহা৷ লঘু মতি মোরি চরিত অবগাহা৷৷
সূঝ ন একউ অংগ উপাঊ৷ মন মতি রংক মনোরথ রাঊ৷৷
মতি অতি নীচ ঊি রুচি আছী৷ চহিঅ অমিঅ জগ জুরই ন ছাছী৷৷
ছমিহহিং সজ্জন মোরি ঢিঠাঈ৷ সুনিহহিং বালবচন মন লাঈ৷৷
জৌ বালক কহ তোতরি বাতা৷ সুনহিং মুদিত মন পিতু অরু মাতা৷৷

1.7.8

चौपाई
लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती।।
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए।।

1.6.8

चौपाई
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।।
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें।।
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई।।
मंदोदरीं हदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना।।
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा।।
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा।।

1.5.8

चौपाई
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।

1.4.8

चौपाई
अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी।।
भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।।
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।।
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला।।
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा।।
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला।।
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई।।

दोहा/सोरठा

1.3.8

चौपाई
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला।।
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा।।
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।।
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा।।
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।।
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा।।
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा।।

1.2.8

चौपाई
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।।
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।

दोहा/सोरठा
राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।

1.1.8

चौपाई
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही।।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।।

Pages

Subscribe to RSS - 8