devanagari

1.6.68

चौपाई
कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा।।
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा।।
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा।।
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा।।
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा।।
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं।।
लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं।।
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं।।

1.6.67

चौपाई
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा।।
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई।।
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा।।
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा।।
रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा।।
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे।।
कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी।।
देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई।।

1.6.66

चौपाई
उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला।।
भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई।।
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं।।
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा।।
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती।।
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलउ तेहिं जाना।।
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा।।
पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना।।
नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी।।

1.6.65

चौपाई
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन।।
नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा।।
एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना।।
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर।।
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा।।
मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो।।
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो।।
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता।।
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि।।

1.6.64

चौपाई
महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना।।
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा।।
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ।।
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो।।
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा।।
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ।।
सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन।।
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन।।
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर।।

1.6.63

चौपाई
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा।।
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना।।
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक।।
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई।।
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक।।
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा।।
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई।।
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन।।

दोहा/सोरठा

1.6.62

चौपाई
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।।
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।।
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।।
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।।
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा।।
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई।।
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।।

1.6.61

चौपाई
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।।
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।

1.6.60

चौपाई
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी।।
कपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने।।
अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ।।
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा।।
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता।।
चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता।।
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना।।
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी।।

दोहा/सोरठा

1.6.59

चौपाई
परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक।।
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए।।
बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा।।
मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी।।
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा।।
जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया।।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला।।
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा।।

दोहा/सोरठा

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