devanagari

1.6.26

चौपाई
सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी।।
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा।।
जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा।।
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा।।
राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा।।
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा।।
बैनतेय खग अहि सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दसानन।।
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा।।

दोहा/सोरठा

1.6.25

चौपाई
सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला।।
जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।।
सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी।।
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला।।
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई।।
जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे।।
जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी।।
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी।।

दोहा/सोरठा

1.6.24

चौपाई
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा।।
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई।।
अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती।।
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना।।
कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।।
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा।।
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई।।
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा।।
जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा।।

1.6.23

चौपाई
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद।।
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना।।
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ।।
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा।।
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला।।
आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा।।
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा।।
रावन नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई।।
जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन।।

1.6.22

चौपाई
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई।।
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा।।
सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी।।
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ।।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी।।
देखी नयन दूत रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी।।
कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी।।
धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी।।

दोहा/सोरठा

1.6.21

चौपाई
रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी।।
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई।।
अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा।।
अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना।।
अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक।।
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु।।
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई।।
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई।।
राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई।।

1.6.20

चौपाई
कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर।।
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई।।
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।।
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा।।
नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा।।
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा।।
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी।।
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।

दोहा/सोरठा

1.6.19

चौपाई
तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा।।
सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा।।
आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए।।
अंगद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें।।
भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना।।
मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना।।
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा।।
उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी।।

दोहा/सोरठा

1.6.18

चौपाई
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई।।
प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका।।
पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैंटा।।
बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई।।
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई।।
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी।।
एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं।।
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहीं जारी।।
अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।।

1.6.17

चौपाई
इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई।।
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई।।
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी।।
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा।।
नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना।।
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा।।
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ।।
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।।

दोहा/सोरठा

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