devanagari

1.6.36

चौपाई
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।।
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।

1.6.35

चौपाई
कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे।।
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा।।
गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई।।
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।
सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई।।
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।।
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई।।
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना।।

1.6.34

चौपाई
मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक।।
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं।।
गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका।।
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा।।
जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई।।
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा।।
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा।।
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा।।
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।

1.6.33

चौपाई
एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु।।
मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई।।
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा।।
मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती।।
रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी।।
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा।।
याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें।।
रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी।।
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं।।

1.6.32

चौपाई
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना।।
कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी।।
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे।।
गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर।।
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे।।
आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे।।
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए।।
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू।।

1.6.31

चौपाई
जौ अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई।।
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।।
सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी।।
तनु पोषक निंदक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी।।
अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही।।
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा।।
रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी।।
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें।।

दोहा/सोरठा

1.6.30

चौपाई
अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही।।
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ।।
बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।।
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा।।
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी।।
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता।।
जौं न राम अपमानहि डरउँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।।

दोहा/सोरठा

1.6.29

चौपाई
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।।
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।
सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही।।
सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा।।

1.6.28

चौपाई
सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई।।
नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।
मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा।।
बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा।।
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा।।
जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।।
तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा।।
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू।।

दोहा/सोरठा

1.6.27

चौपाई
सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई।।
जौ खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही।।
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला।।
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें।।
ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना।।
जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।।
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा।।
सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा।।

दोहा/सोरठा

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