verse

1.1.329

चौपाई
पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।।
भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने।।
परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।।
चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई।।
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती।।
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।
समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।
एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।

दोहा/सोरठा

1.1.328

चौपाई
पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती।।
परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।
सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।
बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।
तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।।
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।

दोहा/सोरठा
सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।

1.1.315

चौपाई
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी।।
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा।।
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।
साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा।।
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी।।
मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।।
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे।।

दोहा/सोरठा

1.1.314

चौपाई
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।।
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।।
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे।।
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं।।
बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।

दोहा/सोरठा

1.1.313

चौपाई
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा।।
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।
संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।।
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता।।
लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।।
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।।
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।

दोहा/सोरठा

1.1.312

चौपाई
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।।
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।
कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।।
गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।
मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।
पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।।
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।

दोहा/सोरठा

1.1.310

चौपाई
जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही।।
इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे। काहिं न इन्ह समान फल लाधे।।
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं।।
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।
जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी।।
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।।
बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।

दोहा/सोरठा

1.1.309

चौपाई
रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी।।
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।
सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।।
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना।।
सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।।
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।
प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।।
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।

दोहा/सोरठा

1.1.308

चौपाई
मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।
कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।
पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं।।
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।

दोहा/सोरठा

1.1.307

चौपाई
निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती।।
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।
सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी।।
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।।
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।।
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।

दोहा/सोरठा

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