14

2.3.14

चौपाई
জব তে রাম কীন্হ তহবাসা৷ সুখী ভএ মুনি বীতী ত্রাসা৷৷
গিরি বন নদীং তাল ছবি ছাএ৷ দিন দিন প্রতি অতি হৌহিং সুহাএ৷৷
খগ মৃগ বৃংদ অনংদিত রহহীং৷ মধুপ মধুর গংজত ছবি লহহীং৷৷
সো বন বরনি ন সক অহিরাজা৷ জহাপ্রগট রঘুবীর বিরাজা৷৷
এক বার প্রভু সুখ আসীনা৷ লছিমন বচন কহে ছলহীনা৷৷
সুর নর মুনি সচরাচর সাঈং৷ মৈং পূছউনিজ প্রভু কী নাঈ৷৷
মোহি সমুঝাই কহহু সোই দেবা৷ সব তজি করৌং চরন রজ সেবা৷৷
কহহু গ্যান বিরাগ অরু মাযা৷ কহহু সো ভগতি করহু জেহিং দাযা৷৷

2.2.14

चौपाई
কত সিখ দেই হমহি কোউ মাঈ৷ গালু করব কেহি কর বলু পাঈ৷৷
রামহি ছাড়ি কুসল কেহি আজূ৷ জেহি জনেসু দেই জুবরাজূ৷৷
ভযউ কৌসিলহি বিধি অতি দাহিন৷ দেখত গরব রহত উর নাহিন৷৷
দেখেহু কস ন জাই সব সোভা৷ জো অবলোকি মোর মনু ছোভা৷৷
পূতু বিদেস ন সোচু তুম্হারেং৷ জানতি হহু বস নাহু হমারেং৷৷
নীদ বহুত প্রিয সেজ তুরাঈ৷ লখহু ন ভূপ কপট চতুরাঈ৷৷
সুনি প্রিয বচন মলিন মনু জানী৷ ঝুকী রানি অব রহু অরগানী৷৷
পুনি অস কবহুকহসি ঘরফোরী৷ তব ধরি জীভ কঢ়াবউতোরী৷৷

2.1.14

चौपाई
এহি প্রকার বল মনহি দেখাঈ৷ করিহউরঘুপতি কথা সুহাঈ৷৷
ব্যাস আদি কবি পুংগব নানা৷ জিন্হ সাদর হরি সুজস বখানা৷৷
চরন কমল বংদউতিন্হ কেরে৷ পুরবহুসকল মনোরথ মেরে৷৷
কলি কে কবিন্হ করউপরনামা৷ জিন্হ বরনে রঘুপতি গুন গ্রামা৷৷
জে প্রাকৃত কবি পরম সযানে৷ ভাষাজিন্হ হরি চরিত বখানে৷৷
ভএ জে অহহিং জে হোইহহিং আগেং৷ প্রনবউসবহিং কপট সব ত্যাগেং৷৷
হোহু প্রসন্ন দেহু বরদানূ৷ সাধু সমাজ ভনিতি সনমানূ৷৷
জো প্রবংধ বুধ নহিং আদরহীং৷ সো শ্রম বাদি বাল কবি করহীং৷৷
কীরতি ভনিতি ভূতি ভলি সোঈ৷ সুরসরি সম সব কহহিত হোঈ৷৷

1.7.14

छंद
जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।

1.6.14

चौपाई
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी।।
दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही।।
सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई।।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।
सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।
कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।।

दोहा/सोरठा

1.5.14

चौपाई
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।

1.4.14

चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।
दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।

दोहा/सोरठा

1.3.14

चौपाई
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा।।
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए।।
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं।।
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा।।
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया।।

दोहा/सोरठा

1.2.14

चौपाई
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।

दोहा/सोरठा

1.1.14

चौपाई
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई।।
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना।।
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।।
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा।।
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने।।
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें।।
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू।।
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं।।

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